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यकृत की ऊतकीय संरचना? ( Yakrit kee ootakeey sanrachana )

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यकृत की ऊतकीय संरचना? ( Histological Structure of Liver )

यकृत की ऊतकीय संरचना— जठरान्त्रीय नाल ( Gastrointestinal canal ) की तरह, यकृत पर भी लस्य कला ( serous membrane ) यानी विसरल पेरिटोनियम का आवरण होता है । इसमें बाहर मीसोथीलियम होती है और भीतर ढीले संयोजी ऊतक का स्तर होता है । तोरण क्षेत्र ( Archway ) में आवरण के संयोजी ऊतक स्तर की बहुत से महीन , शाखान्वित पट्टियाँ ( trabeculae ) भीतर धंसकर एक यकृत पिण्ड को छोटे – छोटे षट्भुज ( hexagonal ) यकृत पिण्डकों ( hepatic lobules ) में बाँट देती हैं । हर एक पिण्डक के चारों ओर इसी ऊतक की पट्टियाँ एक ग्लीसन का कैप्सूल बनाती हैं । पहर एक पिण्डक में इसकी केन्द्रीय अक्ष ( central axis ) की लम्बाई में फैली एक केन्द्रीय शिरा ( central vein ) होती है । प्रत्येक पिण्डक के कैप्सूल सतह पर हर एक कोण पर लम्बाई में फैली छिछली खाँच जैसी होती है । इस क्षेत्र को निर्वाहिका मार्ग या त्रय ( portal tract or triad ) कहते हैं , क्योंकि इसकी लम्बाई में आहारनाल से आने वाली यकृत निर्वाहिका शिरा ( hepatic portal vein ) एवं यकृत धमनी ( hepatic artery ) की एक – एक शाखा तथा एक आन्तरपिण्डकीय यकृत वाहिका ( interlobular hepatic ductule ) फैली होती हैं ।

यकृत की ऊतकीय

यकृत के पिण्डकों की कोशिकाएँ भ्रूणीय एण्डोडर्म से उत्पन्न बहुभुजीय यकृत कोशिकाएँ या हेपेटोसाइट्स होती हैं । हर एक पिण्डक में ये कोशिकाएँ , केन्द्रीय शिरा से ग्लिसन के सम्पुट तक फैली और खड़ी , अरीय पटलिकाओं ( radial plates or laminae ) में व्यवस्थित होती हैं । हर एक पटलिका में यकृत कोशिकाओं के एक या दो स्तर होते है । पटलिकाएँ सामान्यतः शाखान्वित होती हैं और नजदीक के पटलिकाओं की शाखाएँ सामान्यतः जुड़ी होती हैं । पटलिकाओं और इनके शाखाओं के बीच – बीच के अनियमित खाली स्थानों में रक्त भरा होता है । इसलिए इन स्थानों को यकृत पात्रक ( hepatic sinusoids ) कहते हैं । इनमें रुधिर निर्वाहिका त्रयों में स्थापित यकृत धमनी और यकृत निर्वाहिका शिरा की शाखाओं से आता रहता है और केन्द्रीय शिरा में जाता रहता है ।

दाएं और बाएं यकृत पिण्डों के साभी पिण्डकों की केन्द्रीय शिराऐं जुड़ – जुड़कर क्रमशः दाईं तथा बाईं यकृत शिराएँ ( right and len liver veins ) बनाती हैं जो यकृत से निकलते ही अधोवर्ती महाशिरा ( inferior vena cava ) में खुल जाती हैं । यकृत पात्रकों के दीवार महीन शल्की एण्डोथीलियम होती है । इसकी कोशिकाओं के बीच – बीच में , कहीं – कहीं भक्षी ( phagocytic ) कोशिकाएँ होती हैं जो मरे हुए और निष्क्रिय लाल रुधिराणुओं ( red blood corpuscles ) का भक्षण करके इनके हीमोग्लोबिन का विखण्डन करती रहती हैं । इन कोशिकाओं को तारकित या कुप्फर कोशिकाएँ ( stellate or Kupffer cells ) कहते हैं । यकृत कोशिकाएँ पात्रकों के रक्त से अपने उपापचय ( metabolism ) के लिए जरूरी पदार्थ ग्रहण करती रहती हैं ।

उपापचय ( metabolism ) के परिणामस्वरूप बने पदार्थों का विसर्जन यह दो प्रकार से करती हैं ;

( 1 ). कुछ पदार्थों का विसर्जन यह पात्रकों के रक्त में ही करती हैं ।
( 2 ). कुछ दूसरे पदार्थों का विसर्जन यह इनके द्वारा स्रावित एक तरल में करती हैं जिसे पित्त ( bile ) कहते हैं ।

यकृत कोशिकाओं से रिसकर पित्त बहुत अधिक महीन पित्त कुल्याओं ( bile canaliculi ) में जाता रहता है जिनका एक जाल हर एक पटलिका में फैला होता है । पित्त कुल्याएँ आपस में जुड़ – जुड़कर कुछ मोटी पित्त नलिकाएँ ( bile ductules ) बनाती हैं । इनमें बहता हुआ पित्त , निर्वाहिका बयों ( portal triads ) में स्थित , आन्तरपिण्डकीय यकृत वाहिकाओं ( interlobular hepatic ducts ) में जाता रहता है । इस प्रकार , यकृत पिण्डकों में रक्त और पित्त का बहाव उल्टी दिशा में होता है रुधिर का ग्लिसन सम्पुट से केन्द्रीय शिरा की ओर और पित्त का सम्पुट की ओर होता है ।

यकृत की ऊतकीय
यकृत के दाएं और बाएं पिण्डों की सभी आन्तरपिण्डकीय यकृत वाहिकाएं आपस में जुड़ – जुड़कर क्रमशः दाईं और बाईं यकृत वाहिकाएँ ( hepatic ducts ) बनाती हैं । फिर दाईं और बाईं यकृत वाहिकाएं भी आपस में जुड़कर एक ही यकृत वाहिनी ( common hepatic duct ) बनाती हैं । यह वाहिनी यकृत से बाहर निकलकर पित्ताशय ( gall bladder ) से निकलने वाली पित्ताशय वाहिनी ( cystic duct ) से जुड़ती है । जिसके परिणामस्वरूप एक सह पित्त नली ( common bile duct ) बन जाती है । जब पित्ताशय अपनी सामान्य , शिथिलन की दशा में होता है तो यकृत के पिण्डों से यकृत वाहिनी में एकत्रित पित्त पित्ताशय वाहिनी में बहता हुआ पित्ताशय में इकट्ठा होता रहता है । इसके विपरीत , भोजन के बाद , जब हार्मोन और तन्त्रिकीय उद्दीपनों के प्रभाव से , पित्ताशय का संकुचन होता है तो इसमें इकट्ठा हुआ पित्त सह पित्त नली में बहता हुआ ग्रहणी ( duodenum ) में जाता है । ग्रहणी में खुलने से ठीक पहले सहपित्तनली अपने दूरस्थ छोर पर अग्न्याशय ( pancreas ) की अग्न्याशय वाहिनी के ओर जाती है । इन दोनों के जुड़ने से एक छोटी – सी यकृत अग्न्याशयी तुम्बिका ( hepatopancreatic ampulla or ampulla of Vater ) बन जाती है । जो कि ग्रहणी की दीवार के भीतरी सतह पर स्थित एक ग्रहणी अंकुरक ( duodenal papilla ) के अग्र – भाग पर ग्रहणी की गुहा में खुल जाती है । इस छिद्र का नियन्त्रण ओडाइ की संकोचक पेशी ( sphincter of oddi ) करती है ।

पित्ताशय ( Gall bladder )

यह नीले रंग की लगभग 8 सेमी लम्बी और 4 सेमी चौड़ी अण्डा आकार के थैली जैसी रचना होती है जो एक छोटी आंत्रयोजनी या मेसेन्टरी द्वारा यकृत के दाएं पिण्ड की निचली सतह से जुड़ी रहती है । इसके सँकरे छोर से पित्ताशय वाहिनी ( cystic duct ) निकलकर , सह यकृत वाहिनी से जुड़ जाती है ।

पित्ताशय की दीवार पर बाहर लस्य स्तर ( serosa ) होता है , बीच में अरेखित पेशी तंतुओं का स्तर और भीतर श्लेष्मिका ( mucosa ) के भंज गुहा में उभरे होते हैं । पित्ताशय पित्त का भण्डारण तो करता ही है , इसके साथ ही यह यकृत से आए पित्त से जल सोखकर इसका बहुत अधिक सान्द्रण ( concentration ) भी करता है । जल का अवशोषण अधिक होने या पित्त में कोलेस्ट्रॉल की मात्रा अधिक होने या पित्ताशय के घायल हो जाने से इसमें पित्त का अवक्षेपण ( precipitation ) हो सकता है । इससे पित्त के रवे ( crystals ) बन जाते हैं जिन्हें पित्ताशय पथरी ( gall stones ) कहते हैं । पित्ताशय की क्षति को पित्ताशयशोथ ( cholecystitis ) कहते हैं । इसके कारण पेट में बहुत अधिक दर्द होती है ।

तो दोस्तों उम्मीद करता हूं कि इस लेख यकृत की ऊतकीय संरचना? में दिए गए सभी जानकारी आपको सही तरीके से समझ आ गया है । यदि आपका कोई सवाल या सुझाव है तो कमेंट्स करके जरूर बतायें । धन्यवाद

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