You are currently viewing ऋग्वैदिक काल की सामाजिक स्थिति? | Rgvaidik kaal kee saamaajik sthiti

ऋग्वैदिक काल की सामाजिक स्थिति? | Rgvaidik kaal kee saamaajik sthiti

ऋग्वैदिक काल की सामाजिक स्थिति ( Social condition of Rigvedic period )

ऋग्वैदिक काल की सामाजिक संरचना का आधार परिवार था , परिवार पितृसत्तात्मक (Patriarchal) था । परिवार के मुखिया को कुलप कहा जाता था , जिसे अन्य दूसरे सदस्यों से अधिक महत्त्व प्राप्त होता था । पितृ प्रधान समाज में महिलाओं को उचित सम्मान दिया जाता था । महिलाएं अधिक स्वतन्त्र जीवन – यापन करती थीं । उन्हें पारिवारिक जीवन में अधिक महत्त्व मिलता था । महिलाओं को शिक्षा प्राप्त करने के लिए और राजनीतिक संस्थाओं में शामिल होने के लिए स्वतन्त्रता भी प्राप्त थी । ऋग्वैदिक काल में अपाला , सिकता , घोषा , विश्ववारा , लोपामुद्रा जैसी विदुषी महिलाओं का उल्लेख है । ऋग्वैदिक समाज एक कबीलाई समाज था ।

ऋग-वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था (Varna system in Rigvedic period)

इस काल में वर्ण व्यवस्था ऋग्वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था के चिह्न दिखाई देते हैं । ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में 4 वर्णों ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र की चर्चा मिलती है , लेकिन तब यह विभाजन जन्ममूलक न होकर कर्ममूलक था । इसमें कहा गया है कि ब्राह्मण परम – पुरुष क्षत्रिय उसकी भुजाओं से , वैश्य उसकी जाँघों से एवं शूद्र उसके पैरों से उत्पन्न हुआ है । कुल 10 मंडल हैं ।

ऋग्वेद के ऋषि (Sages of Rigveda)

ऋग्वेद में ऋषियों में प्रमुख गृत्समद , विश्वामित्र , वामदेव , अत्रि , भारद्वाज और वशिष्ठ को क्रमशः दूसरे , तीसरे , चौथे , पाँचवें , छठे और सातवें मण्डल का रचनाकार माना जाता है । ऋग्वेद का आठवाँ मण्डल कण्व और अंगिरस वंश को समर्पित है । नवें मण्डल में सोम की चर्चा है । गाय को अघन्या ( न मारने – योग्य ) माना जाता था । दस्यु की चर्चा ऋग्वेद में ‘ अदेवयु ‘ ( देवताओं में श्रद्धा नहीं रखने वाले ) , ‘ अब्रह्मन ‘ ( वेदों को न मानने वाले ) , ‘ अयज्वन ‘ ( यज्ञ नहीं करने वाले ) इत्यादि रूपों में की गई है ।

ऋग्वैदिक समाज में संस्कार (Rituals in Rigvedic Society)

‘ संस्कारों ‘ को महत्त्व ऋग्वैदिक समाज में दिया जाता था । इसमें कन्या का विवाह मन्त्रोच्चार के साथ पूरा होता था । अधिक समय तक विवाह न करने वाली कन्याओं को अमाजू कहा जाता था । बहुपत्नी की प्रथा नहीं थी । विवाह के अवसर पर वर ( दूल्हे ) को उपहार देने की प्रथा थी , लेकिन इसे ‘ दहेज नहीं कहा जा सकता है , और कन्या के विदाई के समय जो उपहार और द्रव्य दिया जाता था , उसे ‘ वहतु ‘ कहा जाता था । बाल विवाह की प्रथा नहीं थी । समाज में सती – प्रथा का कोई अस्तित्व नहीं था । विधवाओं को पुनर्विवाह करने की स्वीकृति थी ।

ऋग्वैदिक समाज में व्यंजन (Cuisine in Rigvedic Society)

इस समाज में व्यंजन, वस्त्र-आभूषण, और मनोरंजन सोम आर्यों का मुख्य था , जिसे मुख्य आयोजनों के दौरान परोसा जाता था । दूध और दूध से बने व्यंजनों ( खान-पान ) की चर्चा भी मिलती है ।

ऋग्वैदिक समाज में वस्त्र-आभूषण (Clothing-Ornaments in Rigvedic Society)

इस समाज में स्त्री और पुरुष आभूषणों के शौकीन थे । सोने , चाँदी , ताँबे और बहुमूल्य धातुओं के आभूषण प्रयोग में लाए जाते थे । स्त्रियाँ साड़ी और पुरुष धोती एवं गमछे का उपयोग परिधान के रूप में किया करते थे ।

ऋग्वैदिक में मनोरंजन के साधन (Means of entertainment of Rigvedic Aryans)

मनोरंजन के साधन संगीत , नृत्य , शिकार , घुड़दौड़ और चौपड़ का खेल था । कई अवसरों पर प्रतिस्पर्धा का आयोजन भी किया जाता था ।

आर्यों के परिधान (Clothing of the Aryans)

आर्यों के परिधानों को 3 भागों में बांटा जाता है —

( i ). वास — ( शरीर के ऊपर धारण किया जाने वाला मुख्य वस्त्र ) ,
( ii ). अधिवास — ( कमर के नीचे धारण किया जाने वाला मुख्य वस्त्र ) तथा
( iii ). उष्णीय — ( पगड़ी ) परिधान के नीचे पहने जाने वाले अधोवस्त्र को नीवी कहा जाता था ।

Read Other—