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बड़ी आँत के कार्य? यान्त्रिक एवं जैवरासायनिक ( Badee aant ke kaary )

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बड़ी आँत के कार्य? ( Functions of Large intestine )

बड़ी आँत — हमारी बड़ी आंत से हर दिन लगभग 1.5 लीटर काइम शेषान्त्र – उण्डकीय यानी इलियोसीकल छिद्र ( ileocaecal orifice ) में होकर बृहदान्त्र में जाति है । शेषान्त्र – उण्डकीय यानी इलियोसीकल संकोचक ( ileocaecal sphincter ) इस छेद का नियमन करता है । भोजन के कुछ समय बाद एक प्रतिवर्ती प्रतिक्रिया के कारण शेषान्त्र यानी इलियम में क्रमाकुंचन हो जाता है और जठर रस का गैस्ट्रिन हॉरमोन शेषान्त्र – उण्डकीय यानी इलियोसीकल संकोचक का शिथिलन करता है । इसी से काइम शेषान्त्र यानी इलियम से सीकम में पहुँचकर कोलन में जाती रहती है ।

यान्त्रिक कार्य ( Mechanical Functions )

बृहदान्त्र में तीन प्रकार की गतियाँ होती हैं — ( 1 ). हॉस्ट्रीय मन्थन ( haustral churning ) , ( 2 ). क्रमाकुंचन ( peristalsis ) ( 3 ). पुंज क्रमाकुंचन ( mass peristalsis ) आदि ।

जब सीकम से काइम कोलन के आरोही खण्ड में चढ़ने लगती है , कोलन का हर एक हॉन्ट्रम बारी – बारी से संकुचित होकर काइम को अगले हॉस्ट्रम में धकेलने लगता है । इसी को हॉस्ट्रीय मन्थन कहते हैं । इसके साथ – साथ तरंगित क्रमाकुंचन भी होता है , लेकिन यह बहुत ही धीमी गति से लगभग 3 से 12 बार प्रति मिनट होता है । जब क्राइम कोलन के अनुप्रस्थ खण्ड के बीच में पहुँचती है तो बहुत अधिक तेज पुंज क्रमाकुंचन ( mass peristalsis ) होता है जिससे काइम सीधे मलाशय ( rectum ) में पहुँच जाती है । ऐसा पुंज क्रमाकुंचन दिनभर में केवल 3 से 4 बार ही होता है ।

जैवरासायनिक कार्य ( Biochemical Functions )

वृहदान्त्र ( Macrophage ) की आन्त्रीय प्रन्थियाँ केवल श्लेष्म का स्रावण करती हैं । इस श्लेष्म में कोई पाचक एन्जाइम नहीं होता है । यह दीवार की भीतरी सतह पर फैला रहता है । इससे मल के निर्माण में सहायता मिलती है । कोलन में बहुत से विघटनकारी शाणीवी ( symbiotic ) जीवाणु ( bacteria ) होते हैं जो कुछ विटामिनों का संश्लेषण करते हैं और काइम के उन पोषक पदार्थों का किण्वन ( fermentation ) करते हैं जिसका बड़ी आंत में पाचन या अवशोषण नहीं हो पाता है ।

इस प्रकार , काइम में कार्बोहाइड्रेट्स के अवशेषों के किण्वन से हाइड्रोजन , कार्बन डाइऑक्साइड ( CO2 ) और मेथेन गैसें बनती हैं । ये गैसें बदबूदार होती है और पाव ( flatus ) की हवा ( wind ) के रूप में गुदा से बाहर निकलती रहती हैं ।

इसी प्रकार , काइम में मौजूद ऐमीनो अम्लों का विघटन ये जीवाणु वसीय अम्लों , हाइड्रोजन सल्फाइड ( H2S ) , कार्बन डाइऑक्साइड ( CO2 ) , तथा ऐमीन्स ( amines ) में करते हैं । इन्हीं सब पदार्थों के बनने से हमें खट्टी डकार और गैस की समस्या होती है । ऐमीन्स इण्डोल ( indole ) एवं स्कैटोल ( skatole ) होती हैं । मल की दुर्गंध इन्हीं के कारण होती है । पित्त की बिलिरूबिन ( dilirubin ) रंगा का भी ये जीवाणु सरल रंगाओं – स्टाबिलिन ( stercobilin ) और यूरोबिलिन ( urobilin ) में विघटन करते हैं ।

मल का भूरा रंग इन्हीं रंगाओं ( pigments ) के कारण होता है । पित्त में उपस्थित कुछ यौगिकों का छोटी आँत में पुनः अवशोषण हो जाता है और ये यकृत निर्वाहिका शिरा ( hepatic portal vein ) में आते हैं जो इन्हें पुनः यकृत में ले जाती है । इन पदार्थों को यकृत कोशिकाएँ पुनः पित्तनली में स्रावित कर देती हैं । इस प्रकार यौगिकों के आँत व यकृत के बीच पुनःसंचरण को आंत्र यकृत संचरण ( enterohepatic circulation ) कहते हैं ।

अवशोषण , मल – निर्माण और बहिःक्षेपण ( Absorption , Faeces – formation and Egestion )

बड़ी आंत में काइम 3 से 10 घण्टों तक रुक सकती है । इसमें लगभग एक लीटर जल होता है । जैसे – जैसे यह कोलन में आगे की ओर खिसकती है , वैसे – वैसे कोलन की श्लेष्मिका इसमें से अधिकतर 90% जल , कुछ लवणों और जीवाणुओं द्वारा संश्लेषित विटामिन K एवं कई B विटामिन का अवशोषण करके रक्त में पहुँचा देती है । अतः काइम का शेष भाग अर्घठोस मल ( faeces or stool ) का रूप ले लेता है । जैसे ही मल कोलन से मलाशय में पहुँचता है , एक प्रतिवर्ती क्रिया के रूप में मल – त्यागने ( defecation ) की इच्छा होने लगती है । इस समय मलाशय में संकुचन और गुदा की संकोचक पेशियों में शिथिलन होता है जिससे मल गुदा में होकर बाहर निकलता है ।

सामान्यतः लगभग 150 से 200 mL मल का त्याग हर दिन होता है । इसमें कुछ जल , अपचे हुए और अपाच्य तन्तुकीय पदार्थ , रंगा पदार्थ , मृत जीवाणु और इनकी क्रियाओं के परिणामस्वरूप बने पदार्थ , श्लेष्म , कोलेस्ट्रॉल तथा कुछ लवण होते हैं ।

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