ऋग्वैदिक काल की राजनीतिक व्यवस्था (Political system of Rigvedic period)
राजनीतिक व्यवस्था — ऋग्वैदिक काल में राजनीतिक संरचना की सबसे छोटी इकाई कुल या परिवार होता था , जिसका प्रधान कुलप होता था । परिवारों को मिलाकर ग्राम बनता था , जिसके प्रधान को ग्रामणी कहा जाता था । अनेक गाँव मिलकर ‘ विश ‘ बनाते थे , विश का प्रधान विशपति होता था । अनेक विशों का समूह ‘ जन ‘ होता था , और जन के अधिपति को जनपति या राजा कहा जाता था । इस प्रकार एक कबीलाई संरचना का राजनीतिक ढाँचा ऊर्ध्वमुखी था , जिसमें सबसे नीचे परिवार होता था । ऋग्वेद में दाशराज्ञ युद्ध का वर्णन है , जिसमें भरत जन के स्वामी सुदास ने रावी नदी के तट पर दस राजाओं के संघ को हराया था । इसमें पाँच आर्य और पाँच आर्येत्तर जनों के प्रधान थे ।
भरत जन सरस्वती तथा यमुना नदियों के बीच के प्रदेश में निवास करते थे । राजा का कर्त्तव्य कबीले की सम्पत्ति की रक्षा करना होता था । राजा कोई पैतृक शासक नहीं था , सभा और समितियाँ मिलकर उसका चयन करती थीं । सभा , समिति और विदथ जनप्रतिनिधि संस्थाएँ थीं । इन संस्थाओं में राजनीतिक , सामाजिक , धार्मिक और आर्थिक सवालों पर विचार – विमर्श किया जाता था । राजा का राज्याभिषेक होता था , इस अवसर पर ग्रामणी , रथकार , कर्मादिक , पुरोहित , सेनानी जैसे अधिकारी उपस्थित होते थे । इन अधिकारियों को सामूहिक रूप से रत्निन कहा जाता था । इन अधिकारियों के साथ ‘ पुरप ‘ तथा ‘ दूत ‘ भी उल्लेखनीय हैं ।
पुरप दुर्गों की रक्षा के प्रति उत्तरदायित्व होता था । सभा समाज के विशिष्ट जनों की संस्था थी , जिसमें स्त्रियाँ भी हिस्सा लेने के लिए मुक्त थीं । इसके सदस्यों को सुजान कहा जाता था । समिति समुदाय की आम सभा थी जिसके अध्यक्ष को ‘ ईशान ‘ कहते थे । समिति की सदस्यता आम लोगों के लिए खुली होती थी । समिति ही राजा का निर्वाचन करती थी । विदथ , आर्यों की सर्वाधिक प्राचीन संस्था थी , इसे जनसभा भी कहा जाता था , इसमें लुटी हुई वस्तुओं का बँटवारा होता था । राजा को जनस्यगोपा , पुरमेत्ता , विशपति , गणपति गोपति कहा जाता था । प्रजा द्वारा ‘ बलि ‘ राजा को स्वेच्छा से दिया जाने वाला उपहार था ।